Last modified on 23 फ़रवरी 2011, at 04:12

जन्म लेगी नई स्त्री / निवेदिता

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:12, 23 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार =निवेदिता }} {{KKCatKavita‎}} <poem> सुनो, साधो सुनो, जो सच तुमन…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सुनो, साधो सुनो,
जो सच तुमने दुनिया के सामने रखा
जो इतिहास तुमने रचा
और कहा यही है स्त्रियों का सच
अपने दिल पर हाथ रख कर कहना
कितने झूठ गढ़े हैं तुमने
कितनी बेड़ियाँ बनाई तुमने

तुमने जो कहा
वह स्त्रियों की गाथा नहीं थी
वहाँ द्रोपदी का चीर-हरण था
गांधारी की आँखों पर पट्टी थी
वेदना को धर्म और वंचना को त्याग कहा तुमने

साधो ! इस बार स्त्रियाँ अपनी गाथा ख़ुद लिखेंगी
यह सच है कि उसने अभी-अभी अक्षर पहचाना है
फिर भी, टेढ़ी मेढ़ी लकीरों से रच रही है नया इतिहास
अनगढ़ हाथों से नए शब्द गढ़े जा रहे हैं
रची जा रही है एक नई दुनिया
जहाँ चीर-हरण होने पर वह
भरी सभा में प्रार्थना नहीं करेगी
नहीं मागेंगी देवताओं से लज्जा की भीख
वह टूटती-बिखरती ख़ुद खड़ी होगी
उसके भीतर एक आग छुपी है साधो

वह दंतकथाओं की फिनिक्स पक्षी की तरह
अपनी ही राख से उठ खड़ी होगी