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जबीं पर ख़ाक ये किस के दर की / मुबारक अज़ीमाबादी
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जबीं पर ख़ाक ये किस के दर की
बालाएँ ले रहा हूँ अपने सर की
उभर आई हैं फिर चोटें जिगर की
सलामत बरछियाँ तिरछी नजर की
कयामत की हकीकत जानता हूँ
ये इक ठोकर है मेरे फ़ित्ना-गर की
किया मजबूर आईन-ए-वफ़ा ने
न करनी थी वफ़ा तुम से मगर की
न मानोगे न मानोगे हमारी
उधर हो जाएगी दुनिया इधर की
हुई अन-बन किसी से मुझ पे बरसे
बालाएँ मेरे सर दुश्मन के सर की
न तेरे हुस्न-ए-बे-परवा की गायत
न कोई हद मेरे जौक-ए-नज़र की