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जब-जब मेरी विश्व-विजय / महेश अनघ

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जब-जब मेरी विश्व-विजय का
अभिनन्दन होता है ।
भीतर एक अजन्मा बालक
हिलक-हिलक रोता है ।

स्वर्णाक्षर सम्मान-पत्र
नकली गुलदस्ते हैं,
चतुराई के मोल ख़रीदे
कितने सस्ते हैं,
यह जो जय-जयकार कर रहा
अपना ही तोता है ।
 
अल्हड़ नदी ब्याह तो लाए
बाँध बनाने को,
कसे आवरण नहीं उतारे
डूब नहाने को,
छींटा नहीं छुआ धारा में
यह कैसा गोता है ।

कैसी जब्बर भूख
प्यास को साबुत निगल गई,
हिलती रही उमंग
रेल बल खाती निकल गई,
क्यों अगिया बैताल
उमर की गाड़ी में जोता है ।
 
अब तो आँसू ही आकर
बगिया को सींचेगा,
कोई नन्हा हाथ हमारी
दाढ़ी खींचेगा,
दादा जी के दम्भ-हरण को
आमादा पोता है ।