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जब अपनी बेकली से, बेख़ुदी से कुछ नहीं होता / मदन मोहन दानिश

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जब अपनी बेकली से, बेख़ुदी से कुछ नहीं होता
पुकारें क्यों किसी को हम, किसी से कुछ नहीं होता

सफ़र हो रात का तो हौसला ही काम आता है
अँधेरों में अकेली रौशनी से कुछ नहीं होता

कोई जब शहर से जाए तो रौनक़ रूठ जाती है
किसी की शहर में मौजूदगी से कुछ नहीं होता

चमक यूँहीं नहीं पैदा हुई है मेरी जाँ तुझमे
न कहना फिर कभी तू , बेरुख़ी से कुछ नहीं होता

मुझे दुश्वार हँसना है, तुझे दुश्वार रोना है
यहीं लगता है दानिश आदमी से कुछ नहीं होता