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ग़ज़ल
जब इरादा करके हम निकले हैं मंज़िल की तरफ़
खुद ख़ुद ही तूफ़ाँ ले गया कश्ती को साहिल की तरफ़ बिजलियाँ चमकी चमकीं तो हमको रास्ता दिखने लगाहम अँधेरे में बढ़े ऐसे भी मंज़िल की तरफतरफ़्
क्या जुनूँ पाला है लहरों ने अजब पूछो इन्हें
क्यों चली हैं शौक़ से मिटने ये साहिल की तरफतरफ़
फैसला फ़ैसला मक़तूल के हक़ मे में नहीं होगा कभीये वकालत वक़ालत और मुन्सिफ़ मुंसिफ़, सब हैं कातिल क़ातिल की तरफतरफ़
है अँधेरी कोठरी मे नूर की खिड़की 'ख़याल'
आँख अपनी बंद करके देख तो दिल की तरफतरफ़
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