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जब कभी भी हो तुम्हारा मन / विष्णु सक्सेना

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जब कभी भी हो तुम्हारा मन चले आना
द्वार के सतिये तुम्हारी हैं प्रतीक्षा में

हाथ से कांधों को हमने थाम कर
साथ चलने के किये वादे कभी
मन्दिरों दरगाह पीपल सब जगह
जाके हमने बाँधे थे धागे कभी

प्रेम के हर एक मानक पर खरे थे हम
बैठ ना पाये न जाने क्यों परीक्षा में

हम जलेंगे और जीयेंगे उम्रभर
अपना और दिये का ये अनुबन्ध है
तेज़ आँधी भी चलेगी साथ में
पर बुझायेगी नहीं सौगन्ध है
पुतलियाँ पथरा गयीं पथ देखते पल-पल
आँख को शायद मिला ये मंत्र दीक्षा में

अक्षरों के साथ बंध हर पँक्ति में
याद आयी है निगोडी गीत में
प्रीत की पुस्तक अधूरी रह गयी
सिसकियाँ घुलने लगीं सँगीत में
दर्द का ये संकलन मिल जाये तो पढना
मत उलझना तुम कभी इसकी परीक्षा में