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जब तबीयत में क़नाअत थी तो ख़ुद्दारी भी थी / ओम प्रकाश नदीम

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जब तबीयत में क़नाअत<ref>आत्मसन्तोष</ref> थी तो ख़ुद्दारी भी थी ।
दिल में थोड़ा सहन भी था चारदीवारी भी थी ।।

मुझको उसकी खुद्सिताई<ref>आत्मप्रशंसा</ref> से न था कोई गुरेज़,
उसको अपनी बात मनवाने की बीमारी भी थी ।

ख़ूब था वो शख्स पहले ज़ख्म देता था मुझे,
फिर छिड़कता था नमक यानी रवादारी भी थी ।

मसअला उलझा हुआ था दो रुखों के दरमियाँ,
गुफ़्तगू भी चल रही थी और तैयारी भी थी ।

वो तुम्हारे पास जा कर बैठना घंटों ’नदीम’
इन्किसारी<ref>विनम्रता</ref> ही नहीं थी मेरी लाचारी भी थी ।

शब्दार्थ
<references/>