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जब तौलिये से कसमसाकर ज़ुल्फ़ उसकी खुल गई / गौतम राजरिशी

जब तौलिये से कसमसाकर ज़ुल्फ़ उसकी खुल गयी
फिर बालकोनी में हमारे झूम कर बारिश गिरी

करवट बदल कर सो गया था बिस्तरा फिर नींद में
बस आह भरती रह गयी प्याली अकेली चाय की

इक गुनगुनी-सी सुब्ह शावर में नहा कर देर तक
बाहर जब आई, सुगबुगा कर धूप छत पर जग उठी

उलझी हुई थी जब रसोई सेंकने में रोटियाँ
सिगरेट के कश ले रही थी बैठकी औंधी पड़ी

इक फोन टेबल पर रखा बजता रहा, बजता रहा
उट्ठी नहीं वो 'दोपहर' बैठी रही बस ऊँघती

लौटा नहीं है दिन अभी तक आज ऑफिस से, इधर
बैठी हुई है शाम ड्योढ़ी पर ज़रा बेचैन-सी

क्यूँ खिलखिला कर हँस पड़ा झूला भला वो लॉन का
आई ज़रा जब झूलने को एक नन्ही-सी परी






(अभिनव प्रयास, जुलाई-सितम्बर 2012)