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जब भी पुकारा आप को सुनते नहीं हैं आप /पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"

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जब भी पुकारा आप को सुनते नहीं हैं आप
खुद दे के हमको वक्त भी आये नहीं हैं आप

इतना गरूर किस लिए किस बात का घमण्ड
है चार दिन की ज़िन्दगी समझे नहीं हैं आप

हर पल निगाहें आपको ही ढूंढती हैं जान
फ़ुर्सत के पल निकाल के मिलते नहीं हैं आप

देखो बहार लाई है खुशियाँ तमाम-सी
इनको भी साथ लूटने चलते नहीं हैं आप

खामोश ही रहोगे या दोगे हमें जवाब
तारीफ़ भी ग़ज़ल कि अब करते नहीं है आप

बंधन हैं इस समाज के हम जानते हैं खूब
आँसू भी अपनी आँख में लाते नहीं हैं आप

’आज़र’खफ़ा हैं आप से घर के तमाम लोग
घर दो पलों के वास्ते आते नहीं हैं आप