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जब मेरे सामने वो माह ए जबीं रहता है / सुमन ढींगरा दुग्गल
Kavita Kosh से
जब मेरे सामने वो माह ए जबीं रहता है
क्या करूँ मैं कि मुझे होश नहीं रहता है
मेरा महबूब है महफ़िल में नुमायां ऐसे
जैसे तारों में कोई माह ए मुबीं रहता है
मैं नज़र भर के उसे देख नहीं पाती हूँ
सामने जब वो मेरे पर्दा नशीं रहता है
रिश्ता ए दिल भी इन आँखों से जुड़ा होता है
चोट लगती है कहीं दर्द कहीं रहता है
बाम ओ दर छूती है जब दिल का मुहब्बत आ कर
ज़िंदगी में वही इक लम्हा हसीं रहता है
जो मेरे दिल में बसा हो वो जुदा क्या होगा
दूर हो जाता है लेकिन वो यहीं रहता है
वो किसी और का मोहताज नहीं हो सकता
अपने मालिक पे जिसे पूरा यकीं रहता है
खाना ए दिल में बहुत आते हैं जाते हैं सुमन
जिस को हम खुद नहीं रखते हैं नहीं रहता है