जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सका|
ग़म में कभी सुकून-ए-रफ़ाक़त न दे सका|
जब मेरे सारे चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं|
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं|
फिर मुझे चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|
तन्हा कराहाने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|
जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सका|
ग़म में कभी सुकून-ए-रफ़ाक़त न दे सका|
जब मेरे सारे चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं|
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं|
फिर मुझे चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|
तन्हा कराहाने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|