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"जब मैं पैदा हुआ था / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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बाल-बाल बच पाई थी,
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मैं मल-मूत में सना
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चींख रहा था
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और वह मुझे जनते ही
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काम पर चली गई थी
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मेरे सनातनी घर में क्या नहीं था--
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दीवारों पर टंगी  तस्वीरें थीं
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परतदार जालों पर आरूढ़ मकड़े थे
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गन्हाते तोशक-तकियों  में
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बेशुमार घुन, दीमक, मकोड़े थे
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खटमली  खाट-खमचे थे
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जीवाश्म-सरीखे भाई-बहन थे
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जिनके जिस्म का हर हिस्सा साबूत था
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हाथ, पैर और मुंह थे
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ओठ थे-- दरकते हुए
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आँखें थीं--डबडबाती हुई
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और तैरती हुई टी.वी. पर
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बेशक!
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वह बड़ी अशुभ घड़ी थी,
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कनस्तरों  में कैद हवा
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बर्तन सूखे से अकड़ रहे थे,
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गगरी धूल से तृप्त हो रही थी,
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चूल्हा राख की गंध भूल गया था
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तभी, बिजली गुल हो गई
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और टी.वी. की हड़कंप
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जिससे मैं कईगुना अवाक रह गया,
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मेरे सहोदरों का अन्त:क्रन्दन
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मुझे सन्न-सुन्न कर गया,
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अपनी अकुलाहट
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कब तक बहला सकते थे?
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वे कुछ खारे और तरल को
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कुरकुरे और चिपचिपे को
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लगातार तरस रहे थे
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क्योंकि उनका छीजता-सूखता कफ भी
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अलोना और बेस्वाद हो चला था,
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पर, वे अपनी शोखी से
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बाज नहीं आ रहे थे
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और भीतर ही भीतर
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गलफड़े चिचोर रहे थे,
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फटे होठों से जीभ नमकीन कर रहे थे
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क्योंकि वे रोटी-पानी के ख्याल में
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नहीं बहक पा रहे थे,
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बिजली के आने तक
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घड़ी के टिक-टिक सूइयों से
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नहीं बहल पा रहे थे
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जबकि समय वहां पालथी मार
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बैठा हुआ था,
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उमसी हवाएं
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उलझ रही थीं,
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धूल का बवंडर
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दंगल मचा रहा था,
 +
रोशनी  अंधेरे कोनों से
 +
लड़-मर रही थी

12:46, 6 जुलाई 2010 का अवतरण


जब मैं पैदा हुआ था

वह निहायत मनहूस दिन का
बेहद वाहियात लमहा था
गुमसुमाता फिंजा
सहमा-सहमा था

इस बार मां
अपनी प्रसव-पीड़ा झेलने
और मेरे पिता की राह देखने
के बीच घुटती
और सुबगती
बाल-बाल बच पाई थी,
मैं मल-मूत में सना
चींख रहा था
और वह मुझे जनते ही
काम पर चली गई थी

मेरे सनातनी घर में क्या नहीं था--
दीवारों पर टंगी तस्वीरें थीं
परतदार जालों पर आरूढ़ मकड़े थे
गन्हाते तोशक-तकियों में
बेशुमार घुन, दीमक, मकोड़े थे
खटमली खाट-खमचे थे
जीवाश्म-सरीखे भाई-बहन थे
जिनके जिस्म का हर हिस्सा साबूत था
हाथ, पैर और मुंह थे
ओठ थे-- दरकते हुए
आँखें थीं--डबडबाती हुई
और तैरती हुई टी.वी. पर

बेशक!
वह बड़ी अशुभ घड़ी थी,
कनस्तरों में कैद हवा
सड़ रही थी,
बर्तन सूखे से अकड़ रहे थे,
गगरी धूल से तृप्त हो रही थी,
चूल्हा राख की गंध भूल गया था

तभी, बिजली गुल हो गई
और टी.वी. की हड़कंप
सन्नाटे में जब्त हो गई
जिससे मैं कईगुना अवाक रह गया,
मेरे सहोदरों का अन्त:क्रन्दन
मुझे सन्न-सुन्न कर गया,
आखिर, वे उस झुनझुने से
अपनी अकुलाहट
कब तक बहला सकते थे?

वे कुछ खारे और तरल को
कुरकुरे और चिपचिपे को
लगातार तरस रहे थे
क्योंकि उनका छीजता-सूखता कफ भी
अलोना और बेस्वाद हो चला था,
पर, वे अपनी शोखी से
बाज नहीं आ रहे थे
और भीतर ही भीतर
गलफड़े चिचोर रहे थे,
फटे होठों से जीभ नमकीन कर रहे थे
क्योंकि वे रोटी-पानी के ख्याल में
नहीं बहक पा रहे थे,
बिजली के आने तक
घड़ी के टिक-टिक सूइयों से
नहीं बहल पा रहे थे
जबकि समय वहां पालथी मार
बैठा हुआ था,
उमसी हवाएं
उलझ रही थीं,
धूल का बवंडर
दंगल मचा रहा था,
रोशनी अंधेरे कोनों से
लड़-मर रही थी