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जब रक़ीबों का सितम याद आया / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'

जब रक़ीबों का सितम याद आया
कुछ तुम्हारा भी करम याद आया

कब हमें हाजत-ए-परहेज़ पड़ी
ग़म न खाया था कि सम याद आया

न लिखा ख़त कि ख़त-ए-पेशानी
मुझ को हंगाम-ए-रक़म याद आया

शोला-ए-ज़ख्म सेऐ सैद-फ़गन
दाग़-ए-आहू-ए-हरम याद आया

ठहरे क्या दिल कि तेरी शोख़ी से
इजि़्तराब-ए-पैहम याद आया

ख़ूबी-ए-बख़्त कि पैमान-ए-अदू
उस को हंगाम-ए-क़सम याद आया

खुल गई गै़र से उल्फ़त उस की
जाम-ए-मय से मुझे जम याद आया

वो मेरा दिल है कि ख़ुद-बीनों को
देख कर आइना कम याद आया

किस लिए लुत्फ़ की बातें हैं फिर
क्या कोई और सितम याद आया

ऐसे ख़ुद-रफ़्ता हो ऐ ‘शेफ़्ता’ क्यूँ
कहीं उस शोख़ का रम याद आया