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जब सुब्ह का मंज़र होता है या चाँदनी-रातें होती हैं / शमीम जयपुरी

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जब सुब्ह का मंज़र होता है या चाँदनी-रातें होती हैं
उस वक़्त तसव्वुर में उन से कुछ और ही बातें होती हैं

जब दिल से दिल मिल जाता है वो दौर-ए-मोहब्बत आह न पूछ
कुछ ओर ही दिन हो जाते हैं कुछ और ही रातें होती हैं

तूफ़ान की मौज़ों में घिर कर पहुँचा भी है कोई साहिल तक
सब यास के आलम में दिल को समझाने की बातें होती हैं

क्यूँ याद ‘शमीम’ आ जाते हैं वो अपनी मोहब्बत के लम्हे
जब इश्क़ के क़िस्से सुनता हूँ जब हुस्न की बातें होती हैं