जब से हम लोग ज़मीं पे हैं ,
कुछ मसले वहीं के वहीं पे हैं !
उन को है शायद शक़ खुद पे ,
जो मारते मरते यकीं पे हैं !
मत तोड़ इबादत के पत्थर ,
सिजदे तो तेरी जबीं पे हैं !
हों कितने अलग दरिया बहते ,
आखिर तो मिलते कहीं पे हैं !
है मौत अगर पैदाइश में ,
हल सब मसलों के यहीं पे हैं !