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जब हवा रहनुमा हो गई / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

जब हवा रहनुमा हो गई।
नाव ख़ुद ना-ख़ुदा हो गई।

प्रेम का रोग मुझको लगा,
और ‘दारू’ दवा हो गई।

जा गिरी गेसुओं में तेरे,
बूँद फिर से घटा हो गई।

लड़ते-लड़ते ये बुज़दिल नज़र,
एक दिन सूरमा हो गई।

दिल को मस्जिद तो होना ही था,
जब मुहब्बत ख़ुदा हो गई।

उसने दिल से रिहा कर दिया,
ज़िंदगी ही सज़ा हो गई।

माँ ने जादू का टीका जड़ा,
बद्दुआ भी दुआ हो गई।