Last modified on 14 अप्रैल 2009, at 13:02

जब हाथी नहाता है / के० सच्चिदानंदन

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:02, 14 अप्रैल 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब हाथी नहाता है
हम देखते हैं सिर्फ़
एक घना अंधेरा पर्दा छाते की तरह और
एक उत्तुंग सूंड़ पाइप की तरह

अब मछलियाँ नाचने लगती हैं चारों ओर
उसके पैरों के, घासें
उसकी नाम देह को गुदगुदाती हैं
जंगल अपने शेरों, भेड़ियों
और पक्षियों के साथ अपनी तंग आँखों को तृप्त कर लेता है
उसके पृष्ट पर लगी हुई धूल
तांबें में सने सोने की तरह चमकती है
कीचड़-प्लावित तालाब लहराने लगता है
एक जंगली सोते की तरह

जब हाथी नहाता है
हमारे त्योहार
व्याकुल कर देने की हद तक
तुच्छ दिखाई देते हैं...साजो-सामान
से प्रसन्न नहीं होता हाथी
आप उसे रोते देख सकते हैं
पर्वों की शोभा-यात्राओं में
हाथियों और मनुष्यों की नियति पर विलाप करते हुए

जब हाथी नहाता है
गर्मी उस सूँड़ में से होती हुई गुम हो जाती है
और मानसून आ जाता है
वन्य चांदनी उन आँखों में
समा जाती है
पानी गाता है हिंडोल
तालाब में उसके एक डबाक पर
समग्र जंगल की ख़ुशबू
एक फूल में
लोगों को दीवाना कर देती है
प्यार बंदिशें तोड़ देता है ख़ुद की
आज़ादी बिगुल बजाती है
और अक्षर उसकी सूंडों को उठा देते हैं ऊपर
वसंत के स्वागत में।

मूल मलयालम से स्वयं कवि द्वारा अंग्रेज़ी में अनूदित। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद: व्योमेश शुक्ल