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जमींन से उठती आवाज / बाल गंगाधर 'बागी'

बहुत दर्द है दरिया सा, और समन्दर भी है
दलित गुलामी का दर्द, फ़िजा के अंदर भी है
आबो, इन बदहवास मौसम की, करवटों को देखो
जहाँ, कई तूफान को समेटे, इक बवंडर भी है

शोषित का दर्द, लहू बनके नहीं सिमटता है
कई उदास मौसमों की बारिश, इनके अंदर भी है
सिर्फ मशाल जैसे इनके, जज्बात नहीं जलते
खून से जलते कई चि़राग, इनके अंदर भी हैं

चाँद रोती आंखों में, रोटी के सिवा कुछ भी नहीं
यातना भूख में तड़पता जिगर, खंजर भी है
दलितों के ज़मीनी सच, कई सवाल उठा सकते हैं
हर उपजाऊ धरातल जिनका अभी बंजर ही है

हम कुदाल से चीरते हैं, जब ज़मीन का सीना
तब फसलें लहलहाती दिल के अंदर भी हैं
‘बाग़ी’ हरे बाग यह पतझड़ छिपा सकते नहीं
जिसकी शहादत देने वाले कई मंजर भी हैं