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जमुना बाई / राम सेंगर - अवतरण इतिहास
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{{KKRachna<br />
|रचनाकार=राम सेंगर<br />
|अनुवादक=<br />
|संग्रह=रेत की व्यथा-कथा / राम सेंगर<br />
}}<br />
{{KKCatNavgeet}}<br />
<poem><br />
इकली है तो क्या ,<br />
प्रसन्नमन<br />
जीती जमुना बाई ।<br />
<br />
मुँह अन्धियारे<br />
नित्यकर्म से फ़ारिग होकर<br />
मोरी धोई<br />
घर का कोना-कोना झारा ।<br />
हौदी भरी<br />
घिनोंची पर दो घड़े धर दिए<br />
चूल्हे की सब राख बुहारी<br />
पोता मारा ।<br />
कामकाज की सूने घर में<br />
मानो अलख जगाई ।<br />
<br />
गोबर-कूड़ा कर <br />
खूँटे पर गैया बाँधी<br />
हरियाई डाली , सानी दी, <br />
दूध निकाला ।<br />
हाँड़ी चढ़ा बरोसी पर<br />
चूल्हा सुलगाया ।<br />
झबरी कुतिया को<br />
रोटी का टुकड़ा डाला ।<br />
गरमागरम चाय से सुस्ती<br />
कोसों दूर भगाई ।<br />
<br />
चकिया झारी<br />
बासन माँजे, चौका लीपा <br />
न्हा धोकर के<br />
गँगाजी का दिया जलाया ।<br />
चाची ताई <br />
अम्मा दादी कहने वाली<br />
छई छापरी आईं<br />
उनका मन बहलाया ।<br />
भूख लगी तो मीड़ मठा में<br />
बासी रोटी खाई ।<br />
<br />
हर उधेड़बुन से <br />
निचोड़ लेती रस चुपके<br />
अज़ब कमेरी<br />
हाथ मचल उठते घरी-घरी ।<br />
थकती नहीं<br />
मुहल्ले-भर के टल्ले लादे<br />
जाने क्या करती-फिरती<br />
दिन-भर उठा-धरी ।<br />
जान गई है ख़ुश रहने से<br />
जमे न मन पर काई ।<br />
<br />
छोटा-सा ज़मीन का टुकड़ा<br />
निबल सहारा<br />
कभी न बैठी<br />
ले दुखदायी रामकहानी ।<br />
कन्धा देने<br />
क्यों भविष्य की ओर निहारे<br />
अपनी धुन की<br />
ठहरी पूरी औघड़दानी ।<br />
सोच न सपना,जाने लेकिन,<br />
जीवन की सच्चाई ।<br />
</poem></div>
अनिल जनविजय