भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जरा देखो तो बाहर / हरिपाल त्यागी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जरा देखो तो बाहर
हवा में कैसी गंध है।
जरा देखो तो बाहर
कौन सिसकता है वहां
जरा देखो तो बाहर-
हवा में किसकी तड़पन
दम तोड़ता किसका स्वर!
जरा देखो तो बाहर...
आखिर किसकी गुहार है हवा में।
किसके षड्यंत्र फुसफुसाते हैं,
किसकी पुकार हवा में।
जरा देखो तो बाहर-
हवा में किसका नारा है।
तुम्हारे द्वार को वह थपथपाता कौन?
तुम्हारी चेतना को है जगाता कौन?
जरा देखो तो बाहर...