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जर रहल बा गाँव, घर बा जर रहल / सूर्यदेव पाठक 'पराग'
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जर रहल बा गाँव, घर बा जर रहल
लोग बम-बारूद से बा मर रहल
शान से इन्सान अइँठत मोंछ बा
केहू अतियाचार से ना डर रहल
छोड-बड़ आ जाति के झगड़ा बढ़ल
आदमी के चैन बाटे हर रहल
हिल रहल विश्वास मन के पात अस
भूत भय के राह चलते धर रहल
आज कुछ आ काल्ह कुछ दोसर भइल
लोग वादा कर के बाटे टर रहल
फूल अब का खिल सकी मधुमास में
फेंड़ पर के पात तक बा झर रहल
का फसल के आस तू करबऽ ‘पराग’
केहू बोवल केहू बाटे चर रहल