Last modified on 15 जुलाई 2016, at 02:44

जले टीलों के शहर में / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

हो रहे फिर
रोज़ जलसे
जले टीलों के शहर में

राख की मीनार है
उस पर हज़ारों चढ़ रहे हैं
पाँव दलदल में धँसे हैं
और आगे बढ़ रहे हैं

बादलों की
है नुमायश
मरी झीलों के शहर में

धूप सोने के महल की
आयनों में घने साये
जुगनुओं की रोशनी में
दिन खड़े सूरज उठाये

आँख पत्थर की
सभी की
इस कबीलों के शहर में

एक पुतली मोम की
आकाश को थामे खड़ी है
लोग सिज़दा कर रहे हैं
कील सीने में गड़ी है

सिर्फ
बूढ़े ही कबूतर
बचे चीलों के शहर में