Last modified on 9 मार्च 2011, at 09:45

जहाँ सब छोड़ देते हैं वहीं से ही उठानी है / मासूम गाज़ियाबादी

Swapnilktiwari (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:45, 9 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मासूम गाज़ियाबादी |संग्रह= {{KKCatGhazal}} <poem> जहाँ सब छोड…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

{{KKRachna |रचनाकार=मासूम गाज़ियाबादी |संग्रह=

जहाँ सब छोड़ देते हैं वहीं से ही उठानी है
हमारे पास ले दे कर गरीबों की कहानी है

सुनाने को सुना सकता हूँ नग्में शहंशाहों के
मगर उनकी टो सब गाते हैं जिनकी हुक्मरानी है

वो क्या समझेगा पत्थर तोड़ते हाथों की तकलीफें
नज़र में जिसकी इक मजदूर औरत की जवानी है

मशक्कत करके जो फिर आज खाली हाथ लौटी है
उसे ये रात भी फिर आज रो रो कर बितानी है

अमीरे-शहर नें भेजा तो है रंगीन पैराहन
गरीबे-शहर को बेटी की फिर इस्मत बचानी है

तुम्हें जुल्फें मुबारक हों, हमें वो खुरदुरे चेहरे
कि जिनकी झुर्रियों में अब भी उल्फत की निशानी है

वो जिन 'मासूम' आँखों नें लिबासे-अश्क पहने हैं
मुझे खाबों की इक महफ़िल उन आँखों में सजानी है