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जहान-ए-इश्क़ में आशिक़ कोई क़ाबिल नहीं मिलता / उदय कामत

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जहान-ए-इश्क़ में आशिक़ कोई क़ाबिल नहीं मिलता
नज़र मिलती है जब उन से भला क्यूँ दिल नहीं मिलता

है क्या तर्ज़-ए-मुसावात-ए-जहाँ ख़ालिक़ ज़रा समझा
कभी कश्ती नहीं मिलती कभी साहिल नहीं मिलता

कि जब ख़ल्वत में लाखों आरज़ूएँ जलवा-फ़रमा हों
निकालें जिस पे वो काफ़िर सर-ए-महफ़िल नहीं मिलता

जफ़ाएँ साज़िशें करते गए वह दाद की मत पूछ
कभी क़ाज़ी नहीं मिलते कभी क़ातिल नहीं मिलता

ग़ज़ल कहने की कोशिश है मगर अफ़सोस ये 'मयकश'
जो मिलता इस्तिआ'रा क़ाफ़िया कामिल नहीं मिलता