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ज़ख़्म को ज़ख़्मे-दिल बनाती हो / दीपक शर्मा 'दीप'

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हर घड़ी क्या वही बताना,उफ़
है इधर दिल उधर ज़माना, उफ़

वह गली है अजीब ही सी गली
उस गली में कभी न जाना, उफ़

उम्र भर बस यही हुआ हर रोज़
'कुण्डियां' खोलना-चढ़ाना, उफ़

बस यही हो रहाहै सच को झूठ
झूठ को अब 'ख़ुदा' बताना, उफ़

कुछ हुआ क्या जुनून से हासिल
मिल गया आपको ख़ज़ाना! उफ़..

बात की बात कुछ नहीं फिर भी
बे वजह यों ही तिलमिलाना, उफ़

आप का ज़ख़्म दे के जाना फिर
दम ब दम जाके लौट आना, उफ़

 हर किसी पे लगाए रखना आंख
हर कहीं पे ही दिल झुकाना, उफ़

बात करने का मन न हो तो 'दीप'
यकबयक काम का बहाना, उफ़