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ज़मीं पे फ़स्ल-ए-गुल आई फ़लक पर माहताब आया / शकील बदायूँनी

ज़मीं पे फ़स्ल-ए-गुल आई फ़लक पर माहताब आया
सभी आए मगर कोई न शायान-ए-शबाब आया

मेरा ख़त पढ़ के बोले नामाबर से जा ख़ुदा-हाफ़िज़
जवाब आया मेरी क़िस्मत से लेकिन लाजवाब आया

उजाले गर्मी-ए-रफ़्तार् का ही साथ देते हैं
बसेरा था जहाँ अपना वहीं तक आफ़्ताब आया

"शकील" अपने मज़ाक़-ए-दीद की तकमील क्या होती
इधर नज़रों ने हिम्मत की उधर रुख़ पर नक़ाब आया