भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़मीं पे रहने लगा है जो आसमाँ बन कर / ज्ञान प्रकाश विवेक
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:39, 13 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक |संग्रह=आंखों में आसमान / ज्ञ…)
ज़मीं पे रहने लगा है जो आसमाँ बनकर
मिलेगा कौन भला उससे कहकशाँ बनकर
समय की धूप से बचकर बता किधर जाऊँ
कि सारे दोस्त मिले काँच का मकाँ बनकर
हमारे अहद की तहज़ीब को हुआ क्या है
कि नाचते हैं यहाँ लोग तकलियाँ बनकर
वो ज़िन्दगी का था जंगल कि मैं जहाँ यारो
भटकता फिरता रहा उम्रभर धुआँ बनकर
मैं बदहवास था जब अपनी तिशनगी के लिए
तो सूखे अब्र मिले मुझको मेज़बाँ बनकर