भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़रा हस्सास होना चाहिए था / नासिर परवेज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़रा हस्सास होना चाहिए था
बिछड़ते वक़्त रोना चाहिए था

बड़ी ज़रख़ेज़ है ये दिल की मिट्टी
सो तुख़्म-ए-इश्क़ बोना चाहिए था

फ़क़त आँखें भिगोना राएगां है
तुम्हें दामन भिगोना चाहिए था

तो क्या तुम से वफ़ा सरज़द हुई है?
ये हरगिज़ भी न होना चाहिए था!

मैं घर पोहंचा तो मुझको याद आया
तिरी गलियों में खोना चाहिए था

तुम्हारी सादगी ले डूबी नासिर
तुम्हें चालाक होना चाहिए था