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ज़रीदे में छपी है इक ग़ज़ल दीवान जैसा है / महेंद्र अग्रवाल

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ज़रीदे में छपी है इक ग़ज़ल दीवान जैसा है
ग़ज़ल का फ़न अभी भी रेत के मैदान जैसा है

मिला मैं उससे हां साया मेरा बढ़ता रहा आगे
सफ़र में हमसफ़र भी आजतक हैरान जैसा है

नहीं दिखते उछलते, खेलते, हंसते हुए बच्चे
मोहल्ला इस नई तहज़ीब में शमश्शान जैसा है

नज़र को देखकर ये दाद भी अच्छी नहीं लगती
मुकर्रर लफ़्ज़ तेरे होंठ पे इक दान जैसा है

नई बस्ती, नये मौसम मगर हूं कौल का पक्का
यहां पे गुफ़्तगू करना मुझे अपमान जैसा है

फिसल जाता है पल भर में चमक को देखकर पीली
तेरा ईमान भी लगता है बेईमान जैसा है.

रमारम, तकधिनक धिनधिन मुफाईलुन, फ़उलुन, फ़ा
हमारे वास्ते हर दिन नये अरकान जैसा है