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ज़र्द चेहरों से निकलती रौशनी अच्छी नहीं / सब्त अली सबा

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ज़र्द चेहरों से निकलती रौशनी अच्छी नहीं
शहर की गलियों में अब आवारगी अच्छी नहीं

ज़िंदा रहना है तो हर बहरूपिए के साथ चल
मक्र की तीरा-फ़ज़ा में सादगी अच्छी नहीं

किस ने इज़्न-ए-क़त्ल दे कर सादगी से कह दिया
आदमी की आदमी से दुश्मनी अच्छी नहीं

जब मिरे बच्चे मिरे वारिस हैं उन के जिस्म में
सोचता हूँ हिद्द ख़ूँ की कमी अच्छी नहीं

गोश बर-आवाज़ हैं कमरे की दीवारें ‘सबा’
तख़लिए में ख़ुद से अच्छी बात भी अच्छी नहीं