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ज़हर-ए-ग़म दिल में समोने भी नहीं देता है / ज़फर अनवर

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ज़हर-ए-ग़म दिल में समोने भी नहीं देता है
कर्ब-ए-एहसास को खोने भी नहीं देता है

दिल की ज़ख़्मों को किया करता है ताज़ा हर-दम
फिर सितम ये है कि रोने भी नहीं देता है

अष्क-ए-ख़ूँ दिल से उमड़ आते हैं दरिया की तरह
दामन-ए-चष्म भिगोने भी नहीं देता है

उठना चाहें तो गिरा देता है फिर ठोकर से
बे-ख़ुदी चाहें तो होने भी नहीं देता है

हर घड़ी लगती है ‘अनवर’ प नई इक तोहमत
किसी इल्ज़ाम को धोने भी नहीं देता है