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ज़हर / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

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ज़हर क्यों उगलते हैं बीज
जब पनपते हैं पौधों की
कोख में
ज़हर होता है
फिर भी तितलियाँ भँवरे
उस ज़हर के आस-पास का
मद चाट-चाट कर
मदमस्त हो जीते हैं।

झूमते हैं उछलते हैं भँवरे
कूदती हैं तितलियाँ
फरफराती हुई
ज़िंदगी काट लेती हैं
काश!
भँवरे और तितली हो कर
बीज के ज़हर को नहीं
आसपास के
मद को पीकर जी सकूँ।