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ज़िंदगी की धूप को बच्चा समझ पाया न था / सुमन ढींगरा दुग्गल

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ज़िंदगी की धूप को बच्चा समझ पाया न था
दूर उससे जब तलक़ माँ बाप का साया न था

दर्दो ग़म का दूर तक जब जीस्त मे साया न था
दौर बचपन के सिवा ऐसा कभी आया न था

खूबरू चेहरे ज़माने में हज़ारों हैं मगर
इक सिवा तेरे न जाने क्यूँ कोई भाया न था

तुम पे अर्पण और क्या करती मैं जाँ ओ दिल के बाद
इससे बढ कर पास मेरे कोई सरमाया न था

बेकली अब साथ ले कर रोज़ आती है ये शाम
ये सुहानी थी जब उस की याद का साया न था

संगदिल है ये ज़माना जानते कैसे ये हम
इसकी चौखट से कभी सर पहले टकराया न था

हसरतें पामाल होतीं हैं हमारी जा ब जा
ज़िंदगी तू ने कभी इस दर्जा तड़पाया न था

गर्क थे तारिक़ियों में सब दर ओ दीवार ओ बाम
नाजिशे शम्स ओ क़मर जब मेरे घर आया न था