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ज़िंदगी शक्ल-ए-ख़्वाब की सी है / शेर मो. ख़ाँ ईमान

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ज़िंदगी शक्ल-ए-ख़्वाब की सी है
मौज गोया सराब की सी है

कह सबा वो खुली है ज़ुल्फ़ कहाँ
तुझ में बू मुश्क-नाब की सी है

घर में आने से पहले उस परी-रौ के
रौशनी माहताब की सी है

क्यूँ न दीवाना उस बदन का हूँ
जिस में ख़ुशबू गुलाब की सी है

कुछ न कुछ रात शग़्ल में गुज़री
आज सूतर हिजाब की सी है

क्यूँ छुपाता है शब की बे-ख़्वाबी
बू दहन में शराब की सी है

मेरी नज़रों में तेरे बिन साग़र
शक्ल चश्म-ए-पुर-आब की सी है

मेरा हम-साया सोचता था यही
आज शब इजि़्तराब की सी है

कौन दिल-सोख़्ता है गर्म-तपिश
बू यहाँ कुछ कबाब की सी है

रग-ए-जाँ पर है कौन नाख़ुन-ज़न
कुछ सदा यहाँ रूबाब की सी है

चलिए ‘ईमान’ बज़्म-ए-यार से घर
याँ तरह कुछ जवाब की सी है