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ज़िंदगी / रोहित रूसिया

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बात छोटी मगर
कितनी सही है
ज़िंदगी बस
रिश्तों की खाता-बही है

कहाँ रहते हैं
सब एक से सवेरे
कभी उजले, कभी
तम हैं घनेरे
अबुझ है
यह पहेली ज़िंदगी की
आज तक किसने गही है?

हुआ क्या?
जग ने जब
मुँह अपना मोड़ा
पहाड़ों ने है
जब भी साथ छोड़ा
नदी बस
ढाल पर बहती रही है

बात छोटी मगर
कितनी सही है
ज़िंदगी बस
रिश्तों की खाता-बही है