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ज़िन्दगी का घट कहीं रीता समूचा हो न जाए / शिवम खेरवार

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ज़िन्दगी का घट कहीं रीता समूचा हो न जाए,
नीर कम है; प्यास ज़्यादा, हो सके तो लौट आओ.

कर प्रतीक्षा नयनिके! संभावनाएँ रो पड़ी हैं,
उर उदधि की पीर गा अभिव्यंजनाएँ रो पड़ी हैं,
चक्षुओं में रक्त की नदिया उतरती जा रही है,
क्लांत होती; नेह की सारी कथाएँ रो पड़ी हैं,

पात्र अनुपम नेह के मुँह को छिपाकर हैं सिसकते,
है मिलन की आस ज़्यादा, हो सके तो लौट आओ.
नीर कम है, प्यास ज़्यादा...

ख़त तुम्हें जो कल लिखा वो, आँसुओं से तर-ब-तर है,
यह विरह पीड़ा मुझे नित दे रही मिशिते! ज़हर है,
'जन्म-जन्मांतर तलक यह बन्ध टूटेगा न साजन!'
झूठ था क्या यह वचन? मन सोचकर जाता सिहर है,

है तुम्हें सौगंध बंधन और निर्मल इस वचन की,
है प्रणय! विश्वास ज़्यादा, हो सके तो लौट आओ.
नीर कम है, प्यास ज़्यादा...

सुमुखि! आलिंगन तुम्हारा है अभी तक याद आता,
केश की छाया तले बेचैनियों को भूल जाता,
फिर वही मुस्कान वितरित तुम कपोलों से करो अनु!
मैं जिसे पाकर दुखों में भी प्रिये था मुस्कुराता,

तुम मुझे कर दो क्षमा अब भूल मुझसे फिर न होगी,
है मुझे अहसास ज़्यादा हो सके तो लौट आओ.
नीर कम है, प्यास ज़्यादा...