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"ज़ीस्त उम्मीद के साये में ही पल जाए फिर .../ श्रद्धा जैन" के अवतरणों में अंतर
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− | + | वो कहे गर तो खिलौनों की तरह बन जाऊँ | |
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01:32, 30 अप्रैल 2014 का अवतरण
सर से पानी जो कभी अपने निकल जाए फिर
बुज़दिली अपनी भी हिम्मत में बदल जाए फिर
धूप आने के कुछ आसार तो दिखलाई पड़े
ज़ीस्त<ref>ज़िंदगी</ref>उम्मीद के साये में ही पल जाए फिर
पूछ ले हाल हमारा कभी वो भूले से
ज़िंदगी ठोकरें खाती है सम्हल जाए फिर
फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में मेरा दिन गुज़रे
और हर रात तेरी याद में ढल जाए फिर
वो कहे गर तो खिलौनों की तरह बन जाऊँ
कुछ नहीं और, तबीयत ही बहल जाए फिर
शब्दार्थ
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