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ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने का / गुलज़ार
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ज़ुबान पर ज़ाएका आता था जो सफ़हे पलटने का
अब उँगली ‘क्लिक’ करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे