भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़्यादा सहा कहाँ है थोड़ा यूँ भी निकले दौर बहुत / महेश कटारे सुगम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़्यादा सहा कहा है थोड़ा यूँ भी निकले दौर बहुत ।
अब कुछ कुछ ऐसा लगता है कहने को है और बहुत ।।

अपने हिस्से की थाली थी पकवानों से भरी हुई,
पर धीरे से छीन ले गया कोई हमारे कौर बहुत ।

आँधी आमों की फ़सलों की दुश्मन क्यों बन जाती है,
कितने आम बचेंगे साबुत आया तो है बौर बहुत ।

ख़्वाब सजाए थे शादी के सब के सब झूठे निकले,
अच्छे घर वर की चाहत में पूजी है गनगौर बहुत ।

तुम्हें मुबारक महल अटारी सुविधाओं से भरी हुई,
सुगम ठीक है अपनी ख़ातिर सीलन वाली पौर बहुत ।।

27-01-2015