Last modified on 26 सितम्बर 2022, at 00:23

जाना, लौटना और भटकना / कौशल किशोर

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:23, 26 सितम्बर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कौशल किशोर |अनुवादक= |संग्रह=उम्म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक कवि को
जाना हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया लगे
फिर भी उसे जाना पड़े

दूसरे को लौटना असंगत नजर आये
इस कदर कि
वह अपने गाँव में खड़ा हो
इस दुस्वप्न के साथ कि
वह उखड़े वृछ की तरह
धरती पर पड़ा है

तीसरे को कदम-कदम पर
चौराहे मिले
सही दिशा लुप्त हो
और भटकना नियति बन जाय

जाना, लौटना और भटकना
त्रिभुज की सीधी-सरल रेखाएँ नहीं
जीवन की उबड़-खाबड़ क्रियाएँ हैं
हमारे समय का सबसे बड़ा सत्य है।