भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाने कब होगा ये धुआँ ग़ायब? / सुल्‍तान अहमद

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:46, 28 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुल्‍तान अहमद |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाने कब होगा ये धुआँ ग़ायब,
जिसमें लगता है आस्माँ ग़ायब।

दाना लेने उड़े परिन्दे कुछ,
आके देखा तो आशियाँ ग़ायब।

हैं सलामत अभी भी दीवारें,
उनके लेकिन हैं सायबाँ ग़ायब।

कैसे जंगल बनाए शहरों में,
हो गए जिसमें कारवाँ ग़ायब।

इस क़दर शोर है यहाँ बरपा,
हो न जाए सही बयाँ ग़ायब।

डरके तन्हाइयों से सोचोगे,
लोग रहने लगे कहाँ ग़ायब।

प्यार गर प्यार है तो उभरेगा,
लाख उसके करो निशाँ ग़ायब।