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जाने कहाँ चले गए वो ज़िन्दगी के पल / ममता किरण

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जाने कहाँ चले गए वो ज़िन्दगी के पल
खुशियाँ थीं ढेर सारी कोई नहीं था छल

मुरझा गए हैं गुल यहाँ शायद इसीलिए
आबोहवा जो चाहिए वो ही गई बदल

जिसने बढ़ा चढ़ा के किया पेश स्वयं को
इस दौर में ऐसे ही लोग हो रहे सफल

दिल का कठोर था वो मगर बाप भी तो था
डोली चढ़ी जो बेटी तो आँखें हुई सजल

धन के नशे में चूर हैं शहज़ादे इस क़दर
बेख़ौफ हो के ज़िन्दगी को जा रहे कुचल

तारे हैं काफ़िये से और चाँद है रदीफ़
अहसास में जब उतरे तो हो गई ग़ज़ल

हर ओर ख़ौफ़, बेबसी है झूठ और फ़रेब
दुनिया के मायाजाल से तू ऐ ‘किरण’ निकल