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जाने कैसे होंगे आंसू बहते हैं तो बहने दो / सलीम रज़ा रीवा
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जाने कैसे होंगे आंसू बहते हैं तो बहने दो
भूली बिसरी बात पुरानी कहते हैं तो कहने दो
हम बंजारों को ना कोई बाँध सका ज़ंजीरों में
आज यहां कल वहां भटकते रहते हैं तो रहने दो
मुफ़लिस की तो मजबूरी है सर्दी गर्मी बारिश क्या
रोटी की ख़ातिर सारे ग़म सहते हैं तो सहने दो
अपने सुख संग मेरे दुख को साथ कहां ले जाओगे
अलग अलग वो इक दूजे से रहते हैं तो रहने दो
खून ग़रीबों का दामन में अपने ना लगने देंगें
सपनो के गर महल हमारे ढहते हैं तो ढहने दो
प्यार में उनके सुधबुध खोकर इस तरहा बेहाल हुए
लोग हमे आशिक़ आवारा कहते हैं तो कहने दो
मस्त मगन हम अपनी धुन में रहते हैं दीवानो सा
जाने कितने हमको पागल कहते हैं तो कहने दो