भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाने हैं हम / कृष्ण शलभ
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:49, 14 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कृष्ण शलभ}} {{KKCatGhazal}} <poem> जाने हैं हम, तुम कैसे थे, क्य…)
जाने हैं हम, तुम कैसे थे, क्या हो गए, बताना क्या
रस्मन आओ बोल-चाल लें, ऐसा भी घबराना क्या
तुम मुझसे पूछो हो, सब कुछ ठीक-ठाक है, बोलूँ क्या
क्या कुछ कितना टूट गया है, समझो हो, समझाना क्या
मिल जाएँ तो अपने दीखें, बिछड़ें तो बेगाने-से
हाथ मिला जो हाथ झटक लें, उनसे हाथ मिलाना क्या
मुद्दत हुई, किया था वादा आने का, पर नहीं आए
तुमने अपने जी की कर ली, छोड़ो भी शरमाना क्या
रिश्ता तो रिश्ता है, रिश्तेदारी दिल का सौदा है
दिल ही न माने तो फिर प्यारे, खाली आना-जाना क्या
उठो शलभ जी डेरा छोड़ो, क्यों मन भारी करते हो
अपनी साँस नहीं जब अपनी, फिर अपना-बेगाना क्या!