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जापान : दो तस्वीरें / मंगलेश डबराल

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(सूनामी की तस्वीरें देखने के बाद)

एक
भूकंप, सूनामी विकिरण से घिरी हुई
एक छोटी-सी बच्ची अथाह मलबे में रास्ता बनाती चली जा रही है
वह सत्रह अक्षरों से बने हुए एक हाइकू जैसी दिखती है
उजड़े हुए घरों के बीच एक अकेला आदमी साइकिल पर कहीं जा रहा है
एक शरणार्थी शिविर की सर्दी में एक वृद्ध चाय मिलने की उम्मीद में है
एक औरत अपने घर के खण्डहर से बिस्तर खींचकर समेट रही है
एक गुड़िया कीचड़ के समुद्र में पड़ी हुई है

हाइकू जैसी छोटी-सी बच्ची
अपने पीछे तस्वीरें छोड़ती हुई चली जाती है।
तस्वीरें जमा होती रहती हैं
उसकी खुद की तस्वीर एक घर के खंडहर में फर्श पर चमक रही है
एक क्षत-विक्षत समय अपनी विकराल छायाएँ फेंकता है
थर्राती हुई धरती की छाया प्रचण्ड पानी की छाया
ज़हरीली हवा की छाया
एक अवाक् हाइकू की तरह सत्रह नाजुक अक्षरों की बनी हुई वह
चलती जाती है उस तरफ़
जहाँ बिछुड़े हुए लोग एक दूसरे को फिर से मिलने की बधाई दे रहे हैं
और फिर बहुत सारी मशीनें हैं
जो हर आने वाले के शरीर में विकिरण नापती हैं।

दो

शरणार्थी कैंप में बच्चों की तस्वीरें धोई जा रही हैं।
ताकि यह पहचाना जा सके कि वे कौन थे
उन्हें धोने वाले सावधानी से तस्वीरों का कीचड़ मिटा रहे हैं
उनका 8.9 रिक्टर पैमाने का भूकंप भगा रहे हैं
उनकी 20 मीटर ऊँची सूनामी लहरों को पोंछ रहे हैं।
उनके 7 स्तर के विकिरण को मिटा रहे हैं
दीवार बेशुमार तस्वीरों से भर गई है
उन बच्चों की जो खो चुके हैं
उनकी याद को धो-पोंछ कर दीवार पर टाँका जा रहा है
नाजुक हाइकू जैसे शिशु जो अब कहीं नहीं हैं।

पुराने हाइकू जैसा एक बूढ़ा एक तालाब पर
देर तक प्रार्थना करता हुआ-सा झुका रहता है
उस गहराई में जहाँ अब पानी नहीं बचा है।