भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जा, और हम्मामबादगर्द की ख़बर ला / विष्णु खरे

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:30, 20 सितम्बर 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(हातिम को सौंपी हुई आख़िरी ज़िम्मेदारी)

पहले मिलते हैं तनोमन्द दीवाने नौजवान जो डूब जाते हैं
बेरहम परीज़ादियों की सराबी मुहब्बत में
फिर कहीं आगे उन आदमज़ाद दोशीज़ाओं की नुमाइश होती है
जिन्हें अज़दहे पसन्द कर उठा ले जाते हैं
वहाँ होते हैं जिन्नात जिनके पास
किसी शय की कि़ल्लत नहीं होती

उकाब बबर कल्ब रूबा की मिली-जुली शक्लो-सूरत
वह कभी-भी अख्तियार कर लेते हैं
उनकी दुम शिगाल की मानिन्द होती है
लगता है उनकी आवाज़ जहन्नुम से आती है
वहाँ रेगिस्तान फ़िलिज़्ज़ के होते हैं
जहाँ सुनहरी ख़ारों की फ़सलें तलुओं को लहूलुहान कर डालती हैं

वहाँ कातान के बादशाह हर मुमकिन कोशिश करते हैं कि कोई
उनके तिलिस्मों तक न पहुँचे
पहुँचे तो उन्हें तोड़कर ज़िन्दा न लौटे

वहाँ दालाने-ग़ुस्ल की गुम्बद चट्टानों में बदल जाती है
इन्सान अगर वहाँ डूबता नहीं है
तो ख़ुद को सहरा में पाता है
फिर नमूदार होता है एक ऐवान
जिसके बाग़ के गुलों और मेवों से तस्कीन नहीं होती
जिसके अन्दर होते हैं मर्मर के मुजस्समे
एक कतार में खड़े
पैर से कमर तक पथराए हुए

वहाँ कफ़स में होता है उड़ता फड़फड़ाता
एक तोता इनसानों की ज़ुबान बोलता हुआ
जिसकी शिक्म में बादशाह क़ैयूमारात ने छिपा रखा है
दुनिया के नायाबतर हीरे को
और जो तीन तीरों में उस ख़ुद-रवाँ परिन्दे की गर्दन काट नहीं देता
वह पत्थर का होता जाता है

तीसरे तीर से जब तोते का सर धड़ से अलग हुआ
तब घन-गरज हुई बिजलियाँ कौंधीं अँधेरा छा गया
अपनी संगियत से रिहा हुआ मैं
सारे मुजस्समे ज़िन्दा हो गए वे सब मुझसे पहले आए थे
मेरे पैरों के पास पड़े हुए थे तीर-कमान
और यह हीरा जो मैं बतौर सुबूत साथ ले आया हूँ
लेकिन जिसे मुझे इसके हक़दारों को लौटाना है

वह तेरी आख़िरी पुर्सिश थी या मुराद
लेकिन उसका यही जवाब ला सका मैं ऐ हुस्नबानू
शुक्र है तेरी धाय को यह सात ही मालूम थीं
वर्ना मैं आजिज़ आ ही रहा था लगातार सामने नुमूदार नँगीमुनँगी हूरों
और मेरे चूतड़ों के गोश्त के लिए पीछा करनेवाले लज़्ज़तपसन्द भेड़ियों से
अभी न जाने कितने शुब्हो-सवाल मेरा इन्तिज़ार कर रहे हैं यमन में
कितनी जद्दोजहद
अच्छा हुआ तूने मुझे उनकी आदत डाल दी

लौटते हुए मुनीरशामी को बताता जाऊँगा कि अब तू उसकी हुई
परवरदिगार उसकी मुहब्बत और तेरी जौजि़यत को महफ़ूज़ रक्खे
तुम दोनों का कितना शुक्रिया अदा करूँ
जो तुम्हारी वजह से हासिल कर पाया
पसोपेश और मुसीबत के हर लम्हे में
हज़रत ख़्वाज़ा खि़ज़्र के मेहरबान मुक़द्दस साये की रहनुमाई को —
उनके पास दोनों जहान के सारे सवालों के हल हैं