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जा रहा था एक दिन / संतोष कुमार सिंह

जा रहा था एक दिन मैं राह में यह सोचता।
माँ भारती के दुश्मनों को, मन ही मन में कोसता।।

जीने न देते आदमी को, दुष्ट भी शकून से ।
खेलते हैं होलियाँ भी आदमी के खून से।।
कोई फरिस्ता भी दिखे, मैं जा रहा यह सोचता।
माँ भारती के दुश्मनों को, मन ही मन में कोसता।।

अस्मत लुटेरे, धन लुटेरे, कुछ मिले ऐंठे हुए।
कुछ मुखौटे भी लगा कर भेड़ि़ए बैठे हुए।।
कोई मिले इंसान भी, मैं जा रहा यह खोजता।
माँ भारती के दुश्मनों को, मन ही मन में कोसता।।

दाग वर्दी में लगे हैं, दाग चेहरे पर लगे।
अँगुली उठी है न्याय पर भी, दर्द अब किससे कहे?
न्यायी मिले इक हंस जैसा, मैं जा रहा यह सोचता।
माँ भारती के दुश्मनों को, मन ही मन में कोसता।।