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जिंदगी की चैत में / रंजना जायसवाल

प्रौढ़ हो गयी है हरी मटर
जिंदगी की चैत में
पीला पड़ रहा है रंग
ना पहले-सी कोमलता ना लचक
कड़ी हो रही है जिल्द
जड़ें,लतरें,टहनियाँ,पत्तियाँ
सब सूख रही हैं देख रही है मटर
कल तक जो पौधे लिपटाए रहते थे उसे
झटक रहे हैं दामन
यहाँ तक कि मेड़ों ने भी
तोड़ लिया है नाता जो अपनी पीठ पर
ममता से चढने देती थीं
वे सब तो पराये हैं
उसके अपने ... छिलके
जिनकी सुरक्षा में उम्र गुजारी
दिखा रहे हैं उसे बाहर का रास्ता
सखी मिट्टी की गोद में
लोट-लोट कर रो रही है मटर
मिट्टी समझाती है उसे -
पगली क्यों हो रही यूँ हलकान
सूखने पर भी नहीं खत्म होगा
तुम्हारा मान-सम्मान
रस भले ना रहे तुममें
बचा रहेगा रूप और स्वाद
भींगकर घुघनी-छोले
भूनकर चबैना-सत्तू दलकर दाल का
रूप लोगी तुम यहाँ तक कि तुम्हीं से होगी
नई हरी मटरों की फसल तैयार
पेड़ यह जानता है

इस बसंत सेमल में
नए,युवा और पुराने पत्ते साथ हैं
दूर से दिख रहे हैं सभी एक जैसे
पर पास से नए का धानी, युवा का हरा
और पुरानों का पीला रंग
साफ चमकता है
नयों में कमनीयता कोमलता और रस है
और पुराने हो रहे हैं तेजी से शुष्क और रसहीन
वैसे स्वभाव दोनों का एक हैं
क्षण में खुश क्षण में कुप्पा
जीभ भी तेज है दोनों की
हरा दोनों को सँभालता है
पेड़ यह जानता है
पुराने नयों में अपना बचपन पा रहे हैं
युवा पुराने में अपना भविष्य
बच्चे इन सबसे निश्चिन्त हैं
बूढों की सिकुड़ी त्वचा
उनके लिए खेल है ..कौतूहल है