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जिंदगी को समझने में देरी हुई / डी. एम. मिश्र

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ज़िंदगी को समझने में देरी हुई
वक़्त के साथ चलने में देरी हुई

मैं लकीरों के पीछे भटकता रहा
अपनी क़िस्मत बदलने में देरी हुई

साधु-संतो के सुनता रहा प्रवचन
उस नियंता से मिलने में देरी हुई

मेरे सीने में वर्षों से जो दफ़्न है
क्यों वही बात कहने में देरी हुई

ये गृहस्थी भी जंजाल है दोस्तो
इससे बाहर निकलने में देरी हुई

वो अँधेरा मगर फैलता ही गया
इक दिया मुझको रखने में देरी हुई

पाँव जिसके हैं वो लड़खड़ायेगा ही
मुझको लेकिन सँभलने में देरी हुई