Last modified on 18 दिसम्बर 2018, at 21:57

जिंदगी तल्ख़तर हो गई / ज्ञान प्रकाश पाण्डेय

जिंदगी तल्ख़तर हो गई,
जेठ की दोपहर हो गई।

ख़्वाहिशें तो मुसलसल बढ़ीं,
पर खुशी मुख़्तसर हो गई।

इक जुलाहे के दर से लिपट,
मुफ़लिसी मोतबर हो गई।

हक-ब-जानिब थी जो रहगुज़र,
किस कदर पुरख़तर हो गई।

कोई चारा न जब रह गया,
पीर ही चारागर हो गई।

फिर चिरागों ने की साजिशे,
फिर हवा तल्खतर हो गई।

जिंदगी खूबसूरत लगी,
जब पसीने से तर हो गई।